
सुबह सवेरे उठकर सूरज,
बातें करता मुझसे हँस कर,
लगता कभी समझ पाता हूँ,
कभी संशय से जाता मैं भर।
छू कर उसने क्या बात कही?
‘उपहार तुम्हारा नव प्रभात यह,
संचित मधुर स्वप्नों का संग्रह।‘
या
‘जब समर प्रतीक्षा में हो तेरे,
नहीं शोभते आलस्य, अंधेरे।‘
या दोनों ही?
मंद-मंद सुरभित बयार,
ले कर मुझे सपनों के द्वार,
चेतना को करती भ्रमित,
कभी नि:शब्द, कभी पुकार;
क्या ध्वनि मेरे कानों में देती?
‘हो भार मुक्त, तुम तैरो-उतराओ,
तोड़ बंध सकल, स्वछंद हो जाओ।‘
या
‘संग चल, अभी बहुत दूर जाना है,
संजीवनी क्षितिज पार से लाना है।‘
या दोनों ही।
सावन की रिमझिम फुहारें,
गीली होती मन की दीवारें,
मिट्टी से उठती आदिम खुशबू,
क्या रचे नया, क्या-क्या सँवारे;
मुझे भिंगा क्या बता गयी?
‘रंग विलक्षण सारे जीवन में,
जी, हर शब्द, गंध भर मन में।‘
या,
‘है मिटटी की महक हमें बुलाती,
एक मरु की तो उर्वर कर छाती।‘
या दोनों ही।
घनघोर अंधेरा मन समेट कर,
तारों के प्रकाश, संकेत भेज कर,
बांध रहस्य, रोमांच के तंतु में,
जड़-चेतन को संग सहेज कर,
जिज्ञासा कुछ पूछने लगी।
‘अर्थ जीवन का या पोषण पहले,
महिमा, गरिमा या यौवन पहले।‘
या
‘मृदुलता का त्याग बल के लिये,
माया है जीना सिर्फ कल के लिये।‘
या दोनों ही।
जीवन निश्चय बहुआयामी,
सदा समन्वय, सदा दोनो ही।