
कुशल क्षेम पूछता हूँ प्रियवर,
कहो सखा, सकुशल तो हो ?
बहुत दिन हुए देखे तुमको,
पहले-से ही निर्मल तो हो?
तेरी सुध मैं ले नहीं पाया,
ना ही तुमने मुझको टोका,
लगता है किसी असमंजस में,
दोनों ही ने खुद को रोका।
इस बीच लगा, मैं व्यस्त रहा,
कई महत्वपूर्ण प्रयोजन में,
तंद्रा टूटी, तो भान हुआ,
था खड़ा अकेला आंगन में।
सब चले गये अपने-अपने घर,
इसका जरा भी रोष नहीं,
व्यथा मात्र इस बात की है कि,
मैं खोया विवेक, निर्दोष नहीं।
समझ रहा था जगहित जिसको,
जब उसमें मुझको खोट मिली,
साहस विरोध का नहीं कर पाया,
सहा, मन पर जो चोट मिली।
कुछ अनुचित देख कर भी,
प्रतिवाद को तैय्यार नहीं,
कई बार हो चुका है ऐसा,
निश्चय, यह पहली बार नहीं।
किन भावों के कारण मन,
झुक, ऐसे समझौते करता है?
कल की अनिश्चिता से या कि,
बीते के अनुभव से डरता है?
उत्तर अबतक मिला नहीं है,
और शायद बाहर मिले नहीं,
जीवन मेरा, मन भी मेरा,
तो समाधान भी मुझसे ही।
मित्र, मेरी करुण वेदना,
कहीं कर ना दे कातर तुझको,
मिल कर कुछ और बताऊंगा,
अभी इसी को इति समझो।
बस इतना और कहे बिना,
पूरी होगी यह बात नहीं,
शस्त्र अभी धरे नहीं मैंने,
रण छोड़ना मुझको ज्ञात नहीं।
कभी-कभी उलझ जाता हूँ,
जैसा हूँ मैं, वैसा क्यूँ हूँ?
गुरु द्रोण नहीं, गांडीव नहीं,
अर्जुन नहीं, अभिमन्यू हूँ।
कर्तव्य बोध सदा आता है,
चिंतन और मनन से ऊपर,
पर सत्य और न्याय से निष्ठा,
रहे सदा प्राणों में बसकर।
रत कर्मों में, शुद्ध विवेक से,
निर्णय अपने लेता हूँ,
यदि हार गया, या छला गया,
क्षण भर रुक, चल देता हूँ।
चलो, व्यस्त हूँ, पर जल्दी ही,
तुझसे मिलने आऊंगा,
आशा है मित्र, बाहें पसारे,
तुम्हें अपने मन में पाऊंगा।
तुम्हें देखने की इच्छा है,
पूरी जल्दी ही कर लूंगा,
धो कलुष समग्र, मन-दर्पण में,
अपनी ही छवि अवलोकूंगा।
👌🏼👌🏼
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बहुत-बहुत धन्यवाद। आभारी हूँ।
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