आते जाते

आँखों से बहते-बहते,

मन में बसी हुई परछाइयाँ

करने लगी हाल-ए-दिल बयाँ,

अभी थोड़ा और मुझे घुलने दो,

मन की दीवारों को धुलने दो,

ताकि आँखोँ में कोई चुभन न रहे,

दागों के संग यह मासूम मन न रहे।

होठों से कहते-कहते,

लफ्ज खुद हिचकिचाने लगे,

मुझको बार बार समझाने लगे,

थोड़ा धीरे चल, अरे रुक, ठहर,

मुझको जाने दे थोड़ा बन सँवर,

बेसब्री में कुछ भी मुँह से मत निकाल,

कि उम्र भर का दिल में रह जाये मलाल।

पैरों से चलते-चलते

कदम झिझके, थकमकाने लगे,

आगे बढने से, हिचकिचाने लगे,

अभी बढूँ या ना बढूँ सवाल न था,

संग क्या ले चलूँ, सोचता रहा उलझा,

अरे कैसे मुड़े और घर वापस आने लगे,

अपनों से बिछुड़ने का दर्द समझाने लगे।

आँखों में पलते-पलते,

सपने कितने रंगीन हो गये,

कि हम भी तमाशबीन हो गये,

कभी खुल कर सामने आते नहीं

क्या कह रहे खुल कर बतलाते नहीं,

खुलो, हर रंग मुझे अच्छे लगते हो,

अकसर बाकी झूठे तुम सच्चे लगते हो।

आहटों को सुनते-सुनते,

मन कहानियाँ बुनने लगता है,

उजाले में सोता, अंधेरे में जगता है,

कभी कभी लुटा-लुटा चुप होता है,

क्या कुछ तलाशता बच्चों-सा रोता है?

जानने क् पाले बैठा पागलों-सा हठ,

इनमें कौन सी उसके लिये है आहट।

साँझ को ढलते-ढलते,

सूरज ने मुझसे एक बात कही,

यह आज कल दिन की बात नहीं,

सवेरा तो हर रोज ही आता है,

फिर अंधेरा क्यों उदास कर जाता है,

मैं सचमुच तुम्हें देखने ही रोज आता हूँ,

कल के लिये हौसला तुम्हीं से चुराता हूँ।

दीवार ने ढहते-ढहते,

गुबार में बदलने से पल भर पहले,

कहा- तय है इतना चाहे जो भी कह ले,

जुड़ी हुई, थी खड़ी हुई, फिर क्या हुआ,

जड़ से थोड़ा-सा कुछ किसी ने हटा दिया,

अक्सर तूफानों को झेलना वजह कही जाती है,

पर दरारें जड़ की मिट्टी खिसकने से ही आती है।

दर्द ने सहते-सहते,

कहा भूल मुझे जाओ तुम कल को,

जुल्मों को, बल को और छल को,

परवाह नही यदि फिर भी तुम जागो,

और सोचो किसीका दर्द कम कैसे हो

इस बात पर अपना वक्त दे सको,

जिदगी में, इतना जोखिम ले सको।

साँसों ने रहते-रहते,

कहा जब तक हूँ मैं सीने में,

मैं जीती हूँ किसी के जीने में,

वरना मैं बस हवा हूँ खोयी कहीं,

जिसका अपना है पता कोई नहीं,

सीख मुझसे कुछ, दोस्त जरा ठहर,

भाग मत, बस जिन्दगी से प्यार कर।

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