लिखूँ क्या बिन अपराधबोध के?

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भक्ति, समर्पण हुई न पूरी,

तर्क और गणना सदा अधूरी,

बुद्धि, विवेक समग्र भी धर दूं,

अंतिम सत्य से न घटती दूरी।

मार्ग सरल हो अभीष्ट नहीं पर,

क्यों त्राण नहीं अंतर्विरोध से?

लिखूँ क्या बिन अपराधबोध के?

स्थूल हर विकृत भौतिकता को,

जर्जर रुग्ण हर नैतिकता को,

असह्य पीड़ा लघुता की अपनी,

और बंधनों की अनावश्यकता को,

अस्वीकार किया और त्याग सका,

पर नहीं मुक्त तृष्णा के बोध से।

लिखूँ क्या बिन अपराधबोध के?

स्नेह, समर्पण, शुचिता मन की,

सम्मान समस्त प्रकृति और जन की,

थे सहज भाव, पर छोड़ न पाया

सूक्ष्म पिपासा अभिनंदन की।

छलते, रूप बदल कर आते,

स्पष्ट लगें, पर अति दुर्बोध ये।

लिखूँ क्या बिन अपराधबोध के?

धुन समता की झंकार मनोहर,

गुंजायमान मानवता के स्वर,

रंग, वर्ण, धन, भौतिक क्षमता,

बाधक न हों प्रगति के पथ पर।

पर अक्षुण्ण रहे मौलिकता सबकी,

यह कृपा हो सब पर बिन विरोध के?

लिखूँ क्या बिन अपराधबोध के?

नगर भिन्न हो, डगर भिन्न हो,

प्रथा, चलन व ईश्वर भिन्न हो,

क्षम्य, न्याय और विधि का अंतर,

यदि मानव मूल्य हृदय निशिदिन हो।

स्नेह शून्य हृदय भी सह्य है,

यदि हो बिन पड़पीड़न, प्रतिशोध के।

लिखूँ क्या बिन अपराधबोध के?

दे प्रकाश, हर अंधकार में,

दे विश्वास मन इस अबोध के।

लिख पाऊँ बिन अपराधबोध के।

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