
अपना नहीं था, जो छिन गया,
क्या ढोना उसे, जो ऋण गया ।
गया समय अब तक कुछ यूँ,
कि कुछ किसीके साथ गया,
और कुछ किसीके बिन गया।
निकला था मेरे घर को ही चैन,
कहाँ राह भूला पता नहीं,
सूनी आँखों में सारा दिन गया।
सारी रात बातें करता रहा मुझसे,
मेरा बचपन गलबहियां डाले,
कौन, कब बिछड़े कहाँ, गिन गया।
थोड़ा और पाने का पागलपन था,
जो चला तो फिर रुका ही नहीं,
किसी तलाश में बढता दिन-ब-दिन गया।
हैरत में हूँ कि उसी जश्न में,
सब थे कितने खुश दिख रहे,
एक मैं ही क्यों हो मलिन गया?
बस मानना था कि वह नहीं है मेरा,
सब थे जानते, फिर भी कहना,
इतना भी क्यों हो कठिन गया?
‘कहीं किसी का दिल ना दुखे’,
एक तिलस्म है, हकीकत में,
अपने जख्म सहलाते ही हर दिन गया।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति 👌🏼👌🏼
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धन्यवाद।
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उत्कृष्ट रचना!!
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धन्यवाद। आभारी हूँ।
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