
लगा कि जाग गया हूँ,
पर उलझन में हूँ कि
वही हूँ या थोड़ा नया हूँ।
चारों ओर हर चीज वैसी की वैसी ही है,
पर तबीयत मेरी न जाने कैसी-कैसी है,
सब कुछ अपनी जगह और बाकायदा है,
मेरे यकीन के सिवा।
तय करना मुश्किल है,
कि मैं हूँ,
जिंदा हूँ,
और हूँ जगा हुआ?
तभी अचानक,
चुपके से, धीरे से,
दबे पाँव आकर,
चारों तरफ से छा कर,
एक डर मुझे घेरने लगा।
और जब मैं बँध गया पूरी तरह,
इस तिलिस्म में,
तो मेरा पूरा वजूद,
बेचैनी के गाढे समंदर में,
डूबने तैरने लगा।
कैसा जहल,
कोई सलाहियत नहीं,
नकाब नहीं।
नये दौर का अदब नहीं,
औरों का भी लिहाज नहीं।
खुला चेहरा, घर के बाहर,
लोगों के हाथों को छूता,
चलता फिरता मौत का सौदागर।
लेकिन इस दरम्यान भी,
लगता रहा मुझे,
कि कहीं कुछ गलत है,
कुछ अनबुझ-सा हो रहा है,
यह एक मायाजाल है,
इसमें यकीन ही नहीं,
वहम भी कहीं खो रहा है।
तय नहीं कर पा रह था,
हूँ जिंदा या मर गया?
खुश होऊँ, अगर जिंदा हूँ मैं?
पर ऐसा नहीं होता महसूस,
क्यों इस कदर शर्मिंदा हूँ मैं?
या फिर मैं मर गया हूँ?
हर पल के खौफ से और
नाउम्मीदी से उबर गया हूँ?
हर पल डर कर जीने से,
इस तरह बेबसी की जिल्लत के घूँट पीने से,
मरना बेहतर है।
पर निजात इतनी आसान होगी,
यह बात समझ से बाहर है।
उहापोह में मन,
कैसे भ्रमित हैं पल-क्षण?
इस अंधेरे में भी,
क्यों कोई किरण ढूँढ रहा हूँ?
क्यों लगता है, है कुछ अधूरा,
जैसे मृत्यु में फिर जीवन ढूँढ रहा हूँ।
अरे, यह कैसा आभास है?
जैसे कुछ बदला है,
नया कुछ मेरे आसपास है।
अब जो महसूस हुआ,
तसल्ली थी या हैरत?
नहीं मरने की खुशी थी,
या मर भी नहीं पाने की जिल्लत?
क्या सपना था यह सब,
मैं जागता पड़ा हुआ हूँ?
आँख खुली है,
एक सुकून है कि जिंदा हूँ,
साथ ही फिर एक बार जीने से शर्मिंदा हूँ।
फिर से कैसी जगी है,
बस इस दौर के गुजर जाने की हसरत?
जो चाह अब रहा हूँ,
वह मौत है या मोहलत?
इन्सानियत डरी हुई,
इन्सान हर डरा हुआ,
हर लब पर सिर्फ शिकायतें,
हर जज्बात खौफजदा।
कंधे नहीं जिन पर सर रखें,
हर किसीने इतना कुछ खोया है।
साँसों पर पहरे के इस दौर में,
किसका ईमान नहीं रोया है?
पर मुर्दों के फूँक कर जिलाता-सा,
कहीं पनपा है एक खयाल सर उठाता-सा,
इस भीड़ में शामिल होने का,
कुछ और नहीं तो आँसुओं से,
चंद दाग कहीं भी धोने का,
जैसे मुझको घेर रहा है।
क्या हुआ यदि,
विश्वास भी हर आदमी से,
अपना चेहरा फेर रहा है।
इस भयानक चीत्कार में भी,
उम्मीदों के टूटने के हाहाकार में भी,
जलते पाँव ही सही, चलना होगा।
चाहे जो भी जले हवन में,
एक केंद्रबिंदु तो बनना होगा।
ध्यान को केंद्रित कर कल्याण पर,
ज्ञान को अर्जित करें सम्मान कर,
रिसते घावों पर न परे छाया कलुष की,
भरते जख्मों पर धरें फूकें हुलसती,
आज जहाँ तक हो सके,
जड़ छोड़ते यकीन के दरख्तों को,
मजबूत करें,
समझाने से परे हो गये मन के,
टुकड़ों को जोड़े,
फिर से उन्हें साबूत करें।
हर कोई जानता है,
यह दौर गुजर जायेगा।
बाकी बचेगा सिर्फ वह,
जो आनेवाला वक्त हमारे बारे में,
आनेवाली नस्लों को,
हमारे बारे में बतायेगा।
उम्मीद का उदाहरण बनें,
जो बन सकता है करें,
अपनी ही आँखों मे कल शर्मसार न हों,
आफत के इस दौड़ में हर कदम,
हम इस तरह धरें।