दालान पर एक अजनबी

Photo by jonas mohamadi on Pexels.com

किसीने मेरे घर के आगे दीवार खड़ी कर दी एक,

सूरज अब जरा देर से उगता है मेरे घर में।

सोचता हूँ कभी शुक्रिया कर आऊँ मैं उसका,

हवाओं से डर के अब मेरी छत नहीं उड़ती।

एक अजनबी आ के बैठा है मेरे दालान पर,

डर है कि कहीं कोई तकाजेवाला न हो वह,

डर से सामने जा न सकता खुद मैं,

बच्चे के हाथों खैरियत और पानी भिजवा दिया है।

नदी ने जबसे अपनी राह बदल ली है,

बच्चों को खेलने की कुछ और जगह मिली है,

गाँववालों को लेकिन एक डर सता रहा है,

कोई देवता किसी भूल पर नाराज तो नहीं हैं?

मेरे नहीं पड़ोस के गाँव में लगता है वह मेला,

जिसके गुब्बारों और चर्खियों से बचपन मेरा भरा है,

मुझे खुद पता नहीं है कि क्यों उदास हूँ मैं,

जो वह मैदान अब एक चकमकाते बाजार का पता है?

सादे लिबास में आजकल रातों में घूमता है,

कुछ लोग डर जायेंगे यह भी उसे पता है,

हुआ तो कुछ जरूर है पिछले कुछ दिनों में,

कि करीब के लोग भी अब मुँह फेरने लगे हैं।

इस नदी के घाट पर कभी हुई थी बड़ी लड़ाई,

किनके बीच और क्यों यह तय नहीं है अब तक,

सदियों से बहता पानी बहता कुछ इस तरह है,

कि ऐसी मामूली बातें तो होती रहती हैं अक्सर।

मेरे घर के पीछे से गुजरती है एक पगडंडी,

दोनो किनारों से घास ने बढ कर छिपा लिया है,

उधर जाता नहीं हूँ, पर सोचकर गुदगुदी होती है,

कि पाँवों से लिपट के पत्ते क्या-क्या मुझे कहेंगे।

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