
मेरी पीड़ा पर भी मंद-मंद मुस्काते हो,
अपनी लड़ाई खुद लड़ने को बार-बार उकसाते हो,
अलस मन जब भी सबकुछ करता है तुम्हे समर्पित,
करते अस्वीकार समर्पण, तंद्रा से मुझे जगाते हो।
अब मैं अपने संघर्ष का
बड़े से बड़ा दर्द सह सकता हूँ,
पर, तेरी मुस्कुराहट खो जाये तो,
पल भर भी नहीं रह सकता हूँ।
अपनी उन्मुक्तता बेहद ही मुझको प्यारी है,
पर यदि उद्देश्य न हो तो स्वतंत्रता भी भारी है,
बात फिर वहीं पहुँचती जहाँ से चली थी,
विवेक भ्रमित हुआ था, चेतना गयी छली थी।
होना क्या स्वयम हो सकता है अपना अभिप्राय?
यदि नहीं तो क्या हैं होने से पहले के अध्याय?
यहीं कहीं ग्रीवा झुकती है, आभार-नत कर जाते हो।
इस वेदना में जो अर्थ छुपा है, पीड़ा हर समझाते हो।
मेरी पीड़ा पर भी मंद-मंद मुस्काते हो।
जीवन कितना सुगम हो जाता है,
सखा जब तुम बन जाते हो।