
स्थिर गगन, नि:शब्द पवन,
घनघोर तिमिर, कण-कण में सजग प्राण,
सृष्टि के इस छोड़ से उस छोड़ तक
कौंध गयी एक रेखा,
मैं ने तुमको देखा।
बड़ा अनर्गल लगता था जब,
कोई बात रहस्यों की करता था,
तर्क और विज्ञान पार्श्व थे,
हर प्रमेय सुलझा लगता था।
चलता रहा अजेय-सा मद में,
संवेदनाओं को कर अनदेखा।
तुम तो थे, मैं ने नहीं देखा।
ज्ञान अनेक भूगोल, खगोल के,
समस्त शास्त्र के, नाप तौल के,
लगता था अब बस जीना है,
हों बाहों में बल और हौसले।
मन थे रण, चित्त थी जिज्ञासा,
उठा-उठा कर तृणवत फेका।
उद्देश्य मात्र जीवन यापन था,
देख-देख भी तुझको नहीं देखा।
कभी-कभी पर ध्वनि हृदय की,
संकेत व्योम से, पुकार अंतर की,
क्या हूँ, क्यों हूँ, गन्तव्य कहाँ है,
असीम लगे विह्वलता उर की,
जगत देखती शांत मुखौटा,
आड़ोलन मन का किसने देखा?
संकेत ढूँढता, सूत्र ढूँढता,
अमूर्त छवि विकल हृदय ने देखा।
वह विधि थी या था निषेध,
मूर्छा थी या चेतना का प्रवेश,
ढगा-सा तकता रहा निर्निमेष,
दिखता सरल पर कितना विशेष,
सूक्ष्म परंतु स्पर्श प्रत्यक्ष था,
निश्चय मन का, विधि का लेखा?
सकल सृष्टि में भाव उजागर,
मैं ने फिर से तुमको देखा।