
विस्मृति,
कैसे अद्भुत, तुम्हारे उपकार,
कितने मनोरम तुम्हारे उपहार।
तुम क्या-क्या हर लेते हो,
उन्मुक्ति भर देते हो,
आभार में कुछ कहूँ इससे पहले,
छोड़ स्मृतियों के तपोवन में चल देते हो।
कई बार,
चल जो पाया हूँ,
गिरते-गिरते सँभल जो पाया हूँ,
अंधकूपों को जाते,
अपने रास्ते बदल जो पाया हूँ,
लगता है माया है,
सब तेरे किये ही हो पाया है।
जब-जब भी भूला हूँ,
पावों की शिथिलता,
रीढ की दुर्बलता,
और अकर्मन्यता, इच्छाशक्ति का ह्रास,
मन में पुलकित हुआ एक विश्वास,
और सहसा, जैसे विद्युत रेखा-सी कुछ कौंधी,
जड़ तंतुओं में फिर से प्राण का हो चला संचार।
कितने मनोरम तुम्हारे उपहार।
कभी अनायास क्षमा बन कर,
कभी इर्ष्या, द्वेष के तापों को हर,
शनैः शनैः कभी तो कभी सत्वर,
अनोखे रंग मेरे चरित्र में भर,
धोये कितने कलुष, हर लिये कितने संताप;
अद्भुत, विस्मृति, तेरे परिष्कार।
कितने मनोरम तुम्हारे उपहार।