
खुद से लड़ते-लड़ते,
अपनी ही बाधाओं पर
चढते उतरते,
जहाँ पर पहुँचा हूँ,
अपना-सा लगता है।
पाँव के छालों की जलन में भी,
चुकती साँसों की घुटन में भी,
एक पूर्णता का भाव जगता है।
स्मृति के उस छोर पर,
जहाँ से चलना शुरू किया था,
सामने की पगडंडी को,
अपनी राह मान लिया था,
एक दीये-सा टिमटिमाता अपना,
अंधकार से जूझने का स्वभाव जलता है।
और हासिल भले कुछ हो न हो,
एक पूर्णता का भाव जगता है।
कितनी ही लहरों में डूबते-उतराते,
कितनी ही बार खुद को खोते-पाते,
जब भी छोड़ दिया सबकुछ,
आशा-निराशा, कल के सपने, मन के नाते,
तैरते तिनके-सी अपनी आजादी,
और भार हीन होना अच्छा लगता है।
एक पूर्णता का भाव जगता है।
कुछ देर के लिये ही सही,
आह्लाद कुछ निशान पीछे छोड़ पाने का,
लघुता के सारे कलंक को,
क्षुद्रता बनने से रोक पाने का,
किसी का अनहित नहीं हो कभी,
इस धर्म की माला मन बार-बार जपता है।
एक पूर्णता भाव जगता है।
रण हो, फुर्सत के क्षण हों,
सहज आलस्य का विलास,
सूक्ष्म संवेदनाओं का स्पंदन हो,
गहनतम अंधकार, चित्त का उजास,
इतनी दूर आ पाने की सुख ही,
हर कड़वाहट को मिठास में बदलता है।
एक पूर्णता का भाव जगता है।