
होता है कैसा सत्य का आकार, मित्रवर?
क्या दिखता होगा क्षितिज के पार, मित्रवर?
कितना बड़ा है मन का विस्तार, मित्रवर?
कहेगा कौन, किसकी करूँ मनुहार, मित्रवर?
अस्तित्व का आभार, पर उद्देश्य हम चुनें,
दृष्टि का वरदान मिला, पर स्वप्न हम बुनें,
लघुता तन की मन की सीमाएँ न तय करे,
अनंत की सम्भावनाओं की पुकार हम सुनें।
उल्लास भी नहीं स्वीकार उधार, मित्रवर।
कहेगा कौन, किसकी करूँ मनुहार, मित्रवर?
कुछ भी नहीं है ज्ञात, पर हताश नहीं है मन,
लम्बी डगर, छोटे हैं डग, है विघ्नों का स्मरण,
यह प्राण पर लघुता को स्वीकार नहीं करता,
चुकने के पहले, इस अग्नि का कोई नहीं शमन।
क्या है अनुचित मेरा यह व्यवहार, मित्रवर?
कहेगा कौन, किसकी करूँ मनुहार, मित्रवर?
स्पर्धा नहीं, मूल में ऋण चुकाने के भाव हैं
जीने से बढ, उद्देश्य ढूँढ पाने के भाव हैं
उल्का-सा दिशाहीन जल कर ना बुझें हम,
अपनी भी एक परिधि बनाने के भाव हैं।
क्या इतना भी नहीं मेरा अधिकार, मित्रवर?
कहेगा कौन, किसकी करूँ मनुहार, मित्रवर?
मित्र कहा, यह सम्बन्ध कभी टूटता नहीं,
विश्वास है वह व्याधि कभी छूटता नहीं,
जीवन के सारे अर्थ हैं तुमसे ही बने,
किस संयोग से मिले मुझे, कुछ पता नहीं।
तुम शीर्ष हो, तुम ही हो आधार, मित्रवर।
संबल देना विकलता में हर बार, मित्रवर।
कहेगा कौन, किसकी करूँ मनुहार, मित्रवर?