
सुबह की गुनगुनी धूप,
खेलती मेरे चेहरे से,
सहलाती मेरे बालों को,
कभी नादान किसी बच्चे सी,
कभी चुभ जाती मेरी आँखों में,
खेल-खेल में गुदगुदाती है,
और बिना आवाज मेरे कानों में
फुसफुसाती है:
सच-सच कहना।
मैं याद तो रहूँगी ना?
मैं कहना चाहता हूँ:
क्यों नहीं।
पर एक क्षण के लिये रुक जाता हूँ।
शर्मा कर, घबरा कर, इतरा कर,
या पता नहीं, यूँ ही,
अपने से उलझ कर,
अपने को उलझा कर।
अगले क्षण,
संभलूँ, इससे पहले,
धूप चली गयी होती है।
मुझे एहसास होता है,
कि मधुरता कैसे खोती है।
सबकुछ भूल जीवन आगे बढता है।
पुरानी छोड़ नयी राहें गढता है।
फिर बाद में कभी,
मन जब अपने अंधकार में डूब रहा होता है,
लगता मन अपना आखिरी अवलंब खोता है,
जब मैं और मेरी उलझनें,
अपने ही से करती साजिशें,
जिस पल कर रही होती है तय,
कि क्यों जिंदगी में सबकुछ है बेकार,
डूबता मैं तैरने लगता हूँ,
क्योंकि होता है मुझे कल सुबह की
धूप का इंतजार।
कल सुबह फिर धूप आयेगी,
हवाओं पर तैरती,
अपनापन बिखेरती,
और मुझे चिढाते हुए कहेगी:
कल तो तुमने कुछ कहा नहीं।
मैं भोलेपन से कहूँगा:
तुम्हें ही फुर्सत नहीं थी।
तुम रुकी नहीं।
फिर थोड़ा मैं देखुँगा इधर-उधर,
अपनी बात की गम्भीरता जताने को।
इतने में धूप फिर चली जायेगी।
यह क्रम,
दिखता व्यतिक्रम-सा,
फिर भी हमें प्यारा है।
जीवन की बहुत सारी भ्रांतियों में,
एक निश्छल सहारा है।
दिशाहीन अनंतता में,
अपनी ओर मुड़ने का इशारा है।
भारी भरकम अर्थ दे कर,
कई बार तो व्यर्थ दे कर,
जीवन का भार बढाते हैं,
और जब इससे गति धीमी होती तो,
दोष काल में ढूँढते और पाते हैं।
जो छुअन है भार हीन,
स्पर्श मृदुल और ताप हीन,
जो भाव स्वच्छंद और निराकार,
स्वत:स्फूर्त आनंद निर्विकार,
जो सीधे मन से जुड़े सहज,
कोमल सरल आनंद स्वरूप,
जीवन को सुरभित करती,
नियामतें, जैसे सुबह की धूप।