नीति और न्याय

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पीड़ा से अभिभूत नहीं, आक्रांत है अन्याय से,

चलो चर्चा शुरू करें हम पहले ही अध्याय से,

नहीं होगा संघर्ष, विषमता और न कोई रोष,

ऐसा कोई अर्थ नहीं था न्याय के अभिप्राय से।

विविधता श्रृंगार सृष्टी का, यह रहा सदा स्वीकार,

मत न हों विभिन्न, तो है निश्चय ज्ञान की हार,

संकीर्णता विपरीत विकास का, तथ्य नित्य निर्विवाद,

भावना किसी वर्चस्व की पर, नहीं स्वस्थ आधार।

श्रेष्ठ है तो लघु भी होगा, स्नेह तो धिक्कार भी,

प्रेममय आश्रय जो होगा, अपमान, बहिष्कार भी,

सम्मान रखने अक्षुण्ण अपना, साहस हो और युक्ति भी,

विधि सम्मत हो न्याय दीर्घा, सुगम खुले हों द्वार भी।

नीतियाँ निर्पेक्ष हैं होती, संवेदनाओं से विहीन कठोर,

न्याय परंतु माया-सा लगता, दिखता नहीं किसी भी ओर,

प्रश्न मौलिक यही खड़ा है, सकल विवेक और ज्ञान पर,

कहाँ नीति जो न्याय करे सबका, निश-दिन, साँझ और भोर।

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