
कभी कहा था मैंने,
कि मैं हार गया,
गणना में लाभ हानि के।
याद हैं मुझे अपने शब्द वे,
बिना किसी ग्लानि के।
पर यह अब तक है,
मेरे हृदय को सालता
कि किस भ्रम में,
तुमने उसे सच मान लिया।
जीवन का प्रवाह कभी कभी,
संगठित होने को,
या दिशा बदलने को,
रुकने का आभास देता है।
फिर तोड़ सारे बंधन,
पुनर्स्फूर्त हो चलता है।
वृक्ष, तजते मोह आज का,
कल के पत्तों को पाने को,
कभी कभी मृत्यु का स्पर्ष,
आवश्यक, अंतरतम तक जाने को।
गति यदि उर्ध्वगामी हो तो,
छाया स्थिर दिखती भू पर,
ठहरा हुआ मन ही तो अंततः,
जाग्रत रखता प्राणों को छू कर।
मैं जब भी थका, झुका या हारा,
बस रुका और फिर चलने का ठान लिया।
किस भ्रम में किसी हार को मेरी,
तुमने कभी सच मान लिया।