अभिप्राय

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हृदय बसा अंधकार विषम-सा,

पौ फटने के पहले तम-सा,

नीति कहाँ है, न्याय कहाँ है?

जीवन का अभिप्राय कहाँ है?

इतने जतन से लिखा जिसे था,

पहला वह अध्याय कहाँ है?

समता मानवता के स्तर पर,

स्वाभिमान से उन्नत हर सर,

मन उन्मुक्त, स्वच्छंद विचार,

सबके लिये होँ सारे अवसर।

क्यों लगता सबकुछ खोता-सा,

अपने ही भ्रम में रोता-सा,

विकल, विवश और हीन भाव से,

थककर रणभूमि में सोता-सा?

क्या थी, कैसी थी वह आशा?

संघर्ष पूर्व फल की प्रत्याशा?

बिना सहे पीड़ा रचना की,

असत्य, प्राप्ति की हर परिभाषा।

माना शुचिता के साथ खड़े तुम,

क्या चमत्कार की आस खड़े तुम?

बिन उद्यम आकांक्षा फल की,

मान स्वार्थ को विश्वास पड़े तुम?

दीन, हीन, कातर और विह्वल,

भाव समर्पण के निश्चय निर्मल,

पर बिन उद्यम प्राप्ति की इच्छा,

प्रमाद, प्रवंचना, वैचारिक दलदल।

कर संघनित शक्तियाँ सारी,

निर्मित कर बस एक चिंगारी,

प्रखर विवेक कर, जीवन यज्ञ में

स्वाहा कर अपनी कुंठा सारी।

शक्ति-संकेत गहराते तम में,

सृजन बिंदु हर स्थिति विषम में,

कोरे पृष्ठ हम ले कर आते,

जीवन रचते प्रण और उद्यम में।

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