
नहीं द्वेष था, नहीं विकलता,
अपना लगता जगत सकल था,
बाल सुलभ क्रीड़ा, किलकारी,
चित्त का हर विषय सरल था।
ना आकांक्षा, ना अभिलाषा,
नहीं भविष्य की कोई प्रत्याशा,
‘नि:शुल्क नहीं कुछ जग में’,
सुनी प्रथम जब तुमने यह भाषा।
‘बिन उद्देश्य के जीवन शापित,
ढूँढ प्रयोजन, उसके हो लो।’
क्या भाव जगे थे, कुछ तो बोलो।
रुधिर वेग से दौड़ रहा था,
किससे लेने होड़ चला था?
न्याय सृष्टि को देने को,
मन सारे बंधन तोड़ चला था।
अपने को न्यौछावर करके,
जग बदलूंगा जी के मरके,
बहुत दूर तक भाव चले संग,
जाने कहाँ फिर गये बिछड़ के?
जब कहा हृदय ने लज्जा मत कर,
बस मुड़ के उनको देख तो लो।
क्या भाव जगे थे, कुछ तो बोलो।
स्मृति एक माया लगती थी,
बंधन-सी काया लगती थी,
होना एक विपर्यय लगता,
घेर रही छाया लगती थी।
फिर भी तुमने नयन उठाये,
बिन किंचत अवसाद दिखाये,
नहीं तनिक भी धैर्य गँवाये,
असीम दृढता से थे मुस्काये।
बसा मन में विवेक जब बोला,
बंद कपाट को अब तो खोलो,
क्या भाव जगे थे, कुछ तो बोलो।
अब जब शिखर के पार हो चले,
मिट चुके रहस्य सारे वह पिछले।
सागर, सरिता पार कर चुके हो,
चकाचौंध सब लगते धुँधले।
स्वयम अपना ही हाथ पकड़कर,
अच्छा लगता, चलना जी भर,
पूछा किसी परिचित ने हँसकर,
‘लगा कैसा यह जीवन जी कर ?’
हर्ष, विषाद क्या उपजा मन में
बनो न पत्थर तनिक तो डोलो।
क्या भाव जगे थे, कुछ तो बोलो।