
याद आते हैं मुझको खुद से हुए संवाद,
रंगबिरंगी मोह-मधुरता, और घने अवसाद।
लज्जा के पल, तिरस्कार के क्षण, घड़ियाँ भोलेपन की,
उल्लास जीत के, गर्त ग्लानि के सबके सब हैं याद।
बल है मेरा, या पाँव की बेड़ी, यह मेरा इतिहास?
कठिन प्रश्न, पर कौंध रहा है उत्तर का आभास।
बीता जो है बीत चुका है,
मान कर सब कुछ विसार दूँ,
विश्वासघात-सा लगता है,
कि इस भाँति मन को विस्तार दूँ।
क्या सारे बीते के अवयव हैं मुझमें विद्यमान नहीं?
क्या उनसे ऋणि-धनी है मेरा वर्तमान नहीं?
पर उनके प्रति करने बैठूँ आज यदि मैं न्याय,
बीते से आगे नहीं बढेंगे जीवन के अध्याय।
चाहे जो उपयोग हो इसका बीता न परिशोधित होगा,
नहीं मिटेगी कुंठा, बस आज अवरोधित होगा।
रुद्ध आज को कर, बीते का विश्लेषण करना,
निश्चय, न भूत और न ही भविष्य के हित होगा।
इतिहास सखा है, और है निस्पृह शिक्षक अभिज्ञान,
पाठ पढें, चरण धूलि लें, यही उसका सार्थक सम्मान।
आगे बढें नवनिर्माण को इस शिक्षा से होकर उन्नत,
संकल्प-स्थिर डग, उर्ध्व ग्रीवा और नयन आभार-नत।
संघर्ष तो स्वभाव सहज है, नहीं इसका कोई अवसाद।
ऐसे याद आते हैं मुझको खुद से हुए संवाद।