भाव खिले कुछ कौतूहल के

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भावशून्य और दिशाहीन-सा,

बिन उद्देश्य और तृण-सा हलका,

मन के अंतरिक्ष  निर्बंध विचरता,

बन सहज शून्य, उन्मुक्त सरलता।

इस जड़ता के सुख में सहसा,

यह कौन आया मुझ तक चलके?

फिर भाव खिले कुछ कौतूहल के।

शांत हृदय था, व्यथा हीन था,

जीवन था निर्वाण-सा लगता,

पर प्रतीति अपूर्णता की हर क्षण,

स्थिति यह परित्राण या जड़ता?

सुख जड़ता का, आनंद न होता,

तंद्रा तोड़ जग पड़ा सँभल के।

फिर भाव खिले कुछ कौतूहल के।

स्फुटन हुआ, प्राणों में आड़ोलन,

आत्मा सजग, चित्त में स्पंदन,

सूक्ष्म गति में उद्देश्य मिल गया,

सृष्टि हुई जीवन का अभिनंदन।

ठगा-ठगा सोचता रह गया

कहाँ छुपे थे, अब अर्थ जो झलके?

फिर भाव खिले कुछ कौतूहल के।

चरम शांति और दुर्धर्ष समर में

दोलन है, कोई अंतिम तत्व नहीं है

जीवन के इस महा गाथा में

विराम भले हो, अमरत्व नहीं है।

जिज्ञासा बिन मृतप्राय मनुज है,

गति और संधान से जीवन चलते।

यूँ भाव खिले कुछ कौतूहल के।

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