
वंचित मत कर मुझे प्रहार से,
बस सहने की क्षमता संग दे दे।
कुंठित मत कर सदाचार से,
मन में कुछ हिलोरें, तरंग दे दे।
मानना तो चाहता हूँ,
पर कुछ नये बनाना चाहता हूँ,
नियम जीवन के अबतक के,
एक बार दोहराना चाहता हूँ।
कोई तिरस्कार नहीं कहीं भी,
रंच मात्र अहंकार नहीं,
किसी भी पथ, पंथ के प्रति,
कोई कुत्सा नहीं धिक्कार नहीं।
हठ नहीं, समर्पण है,
है सम्मान उसी अवधारणा का,
समग्र सृष्टि का उत्थान मात्र ही,
हो लक्ष्य सारी साधना का।
इसी बिन्दु से हम दोनों का,
निकला पहला परिचय है।
यदि मिले तो, उसी बिन्दु पर,
फिर से मिलना निश्चय है।
निषेध, भले ही किसी भाव का,
पूर्णता से बंचित ही करता,
बचने का प्रयास आघात से,
अवांछित भय है मन में धरता।
जो स्थापित उससे व्यवहार के
दो विधियाँ होती निश्चित ही,
पर बिना कसौटी पर परखे क्या,
निर्णय होगा उचित कभी?
दासता तेरी कृपा का,
फिर भी रहेगी दासता,
आहूति नव निर्माण में ही,
गोचर तेरी सच्ची कृपा।
मुखर मेरी जिज्ञासा को कर,
जूझने का सहज उमंग दे दे।
सुख-भोग की निष्क्रियता से मुक्ति दे,
कर्म योग के छंद दे दे।
कुंठित मत कर सदाचार से,
कुछ हिलोरें, तरंग दे दे।