
बँधी भुजाएँ, ज्ञान रुद्ध था,
लगता सारा जग विरुद्ध था,
सारी मति थी भटकी-भटकी,
वेग थमा-सा, गति थी अटकी,
दिग्भ्रमित प्राण था होता जाता,
कोई छोर नहीं दिखता था।
धर चुटकी में सिरा कौन तुम,
समस्त सृष्टि को कर मौन तुम,
विश्वास एक मेरे मन में डाला,
फिर बड़े जोड़ से मुझे उछाला।
था इस अनुभव का रोमांच नया,
खुला मैं और खुलता ही गया।
पाशमुक्ति और भारहीनता,
भर-भर मन में चिर कृतज्ञता,
संशय, भय और क्रोध ले गयी,
उन्मुक्तता का बोध दे गयी।
शक्ति मुझे दो, कि बँधने पर,
खुलने को सबकुछ दाव पर दूँ धर,
सामर्थ्य वही, ऊपर उठने को,
मन के बंधन खोल सके जो।