कर्मस्थल

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मन की सीमाहीन गहराइयों में

कहीं कहीं ज्योति पुंज हैं,

शेष चतुर्दिक अंधकार,

कहीं कहीं ध्वनि सजग है,

अन्यथा नीरवता साकार।

व्याख्या प्रकाश की विस्तृत,

अपरिभाषित सदा अंधकार,

ध्वनि सदा शब्द और संगीत हो गूँजे,

तिरस्कृत नीरवता हर प्रकार।

खोजने में इनके अर्थ,

कितने सक्षम हम कितने समर्थ,

प्रश्न नहीं, हमारे ज्ञान की सीमारेखा है,

इनके आगे जो अनजाना अनदेखा है।

छुपी कहीं इस नीरवता के सघन विस्तार में,

और इस सर्वव्यापी, सूचिभेद्य अंधकार में,

हमारे उन प्रश्नों के उत्तर हो सकते हैं,

जिन्हें हम उजालों में ढूँढते नहीं थकते हैं।

तो क्या अब भी कोई संशय है,

कि यही अगले अनुसंधान का पहला विषय है?

नीड़वता से संयम, अंधकार से दूरी,

अज्ञात से सुरक्षा, पूरी की पूरी,

क्यों हमारा स्वभाव होता जा रहा है,

क्यों जिज्ञासा का स्वाद खोता जा रहा है?

क्या जीवन यह शब्दहीनता और नरम धूप में,

बनी बीतने सुख सुविधा के अंधकूप में?

क्या क्षितिज के पार देखने की आकांक्षा,

बुझ जायेगी, सीमित प्रांगण के रंग-रूप में?

अर्जित सारे प्रकाश पुंज और शब्द ब्रह्म सब,

निधियाँ हैं, शीष सदा नत आदर को तेरे,

पर सविनय एक अनुमति मन माँग रहा हूँ,

शेष नीरवता और अंधकार कर्मस्थल हों मेरे।

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