
लीक बनी, गंतव्य ज्ञात था,
पथिक साथ थे, द्रव्य साथ था,
बहुत प्रलोभन, दंभ भी थोड़ा,
फिर भी मैंने रथ को मोड़ा।
देवालय मेरे सम्मुख था,
पूजन-अर्चन बिधिसम्मत था,
गुरुजनों का आशीष प्राप्त था,
सजे थाल में फूल-अक्षत था।
सहज ज्ञान आगे चल, कहता,
नक्षत्रों ने सम्मोहन जोड़ा।
फिर भी मैंने रथ को मोड़ा।
गोचर पथ का स्नेह आमंत्रण,
नये देश में निश्चित अभिनंदन,
उन्नत भविष्य के संकेत सुलभ,
पर जाने कैसा अज्ञेय-सा बंधन,
चेतना को कर कर के उद्वेलित,
अकस्मात मन को झकझोरा,
तंद्रा भंग कर रथ को मोड़ा।
राह बनायी कभी किसी की,
यात्रा और गंतव्य परिभाषित,
दोहराना स्वयम को आयोजन-सा,
क्या मैं मात्र एक यंत्र हूँ निर्मित?
तज सम्भावना ऋद्धि-सिद्धि के,
बिखरते स्वयम को समेट बटोरा।
रुका उसी क्षण रथ को मोड़ा।
हूँ कृतज्ञ, नतमस्तक, धन्य,
कि छोड़ दिया, कि छोड़ सका,
तोड़े बंधन, पथ एक अपना,
अपने हाथों से लिया बना।
होने और हो पाने की दूरी,
पूरी की, कुछ अपना जोड़ा।
हूँ कृतकृत्य कि रथ को मोड़ा।