
धीर, शांत और मुदित नयन,
निहारता उत्ताल लहरों का नर्तन,
अठखेलियां करती उर्मियाँ, पवन,
अगाध वक्ष में संचित कर जीवन।
सागर नि:संग हो करता अवलोकन,
देखता चतुर्दिक योजनों के योजन,
स्थितप्रज्ञ, विचारता सकल जल मेरा,
यद्यपि बूंद मात्र नहीं मेरे प्रयोजन।
उदात्त चरित्र का अपना सम्मोहन,
स्वयम से कहता हर पल हर क्षण,
मोह हीन मैं, क्षोभ हीन मैं,
मेरा जल हेतु जगत के जीवन।
टूटी तंद्रा, देख जल को होते स्वच्छंद,
और उठते वाष्प का निरंतर उर्ध्वगमन,
बिन अनुमति यह चला क्योंकर,
इतने क्षीण क्या सम्बंध और बंधन।
उठता उपर, क्षण क्षण जीवन में गहराता,
संघनित वाष्प हो गया नभ में मेघ सघन,
बरसता, बहता, उफनता, लहराता,
सहज आ मिला पुन: सागर से प्रवाह बन।
भ्रम कि जो मुझमें है, मेरा है,
आधारहीन, क्षणभंगुर, भ्रांतिक दर्शन,
आवरण, काया, विवेक, अंतर्मन अपने,
पर सबके हैं अपने-अपने जीवन।
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