
इस अंतहीन यात्रा में चलते हुए,
तुम्हारी छाया में पलते हुए,
तुम्हारे सानिध्य को जलते हुए,
जो काल खण्ड आलोकित हुए हैं,
बस उतने ही प्राण के हित हुए हैं।
देवालय को जाते हुए,
दो भावों के बीच डोलता समर्पण,
पात्रता है सम्पूर्ण कि नहीं,
समर्पण आराध्य को स्वीकार्य तो सही।
समर्पण और स्वीकार,
की इसी अनिश्चितता में,
उगते हैं बोध जीवनकी
उपलब्धि और सार्थकता के।
गर्भगृह में हो उपस्थित,
अंत:स्थल के कपाट जब खोलता है मन,
सम्मुख देव नहीं दुविधा होती है,
एकात्म नहीं विविधा होती है,
क्या ईष्ट कभी साक्षात मिलेंगे,
क्या पात्र तज पायेगा कौंधता वह अहंकार,
कि पा लिया उसने इस संधि का अधिकार।
समर्पण में अहंकार का
श्रोत यहीं कहीं होता है,
एक भ्रमित पग अग्रसर
फिर भ्रमजाल कभी न खोता है।
सबकुछ दृष्टिमान,
फिर भी किसी अगोचर को निहारते नयन,
अमूर्त अनुसंधान, विस्मय में हृदय,
अंतर्मुखी यात्रा का अंतहीन आकलन।
असाध्य गति, चरम स्थिरता के बीच
जो घर्षण है, वही ज्ञान है, चेतना है।
असक्ति या अनासक्ति अर्थहीन,
खोना और पाना नहीं,
जीवन का सार
हर द्वन्द्व के आगे की
समेकित संवेदना है।