
खुल के जियो तो घर में
साजो-सामान बिखर जाते हैं,
बँधी तहजीबों में दिल नहीं लगता,
जरा ख्वाबगाह हो के आते हैं।
एक तस्वीर ही तो हिली है थोड़ी,
आप क्यों परेशान नजर आते हैं।
साँसों को तहजीब में बाँधते-बाँधते,
न बोल पाते हैं न गा पाते हैं।
टेढी लकीरें अच्छी नहीं लगती,
क्या इसलिये चेहरे को छुपाते हैं।
परछाइयाँ भी न दिखें बहकी,
यूँ खयालातों को सपाट बनाते हैं।
परेशान आप न हों नाहक हमसे,
हम खामोशी से गुनगुनाते हैं।
तकदीर सँवरने में वक्त लगता है,
इतनी जल्दी क्यों सर झुकाते हैं।
ता उम्र इंतजार हमने किया,
इल्जाम तन्हाई का मुझ ही पर लगाते हैं।
दोस्ती अपनी अच्छी रही है ऐसे,
तुम जताते हो, एहसान हम चुकाते हैं।
बेअदब कह कह के सही पुकारा उसने,
झुकने के तरीके मुझे कम ही आते हैं।
ये शौक भी बड़ा खूबसूरत है यारों,
पहले मारते हैं फिर जिलाते हैं।
आप कहते हैं तो रंगीन होगी फिजा,
पर चिराग जलते कम नजर आते हैं।
बहुत दिन हुए परछाइयाँ देखे,
चलो एक शमा घर में हम जलाते हैं।
जीने की लत कभी कम नहीं होगी,
ख्वाबों उम्र ही तनिक बढाते हैं।