
अपने ही शहर में किससे गिला,
कोसों चला, ना कोई मिला,
जो कहता बस एक मर्तबा,
पहचाने-से हो तुम ऐ हमनवा।
तुम याद नहीं, पर भूला नहीं,
मिलते जुलते से अपने अंदाज थे,
खामोश तो हम पहले भी थे,
जो कहा बस आँखों ने कहा।
मुस्कुराहटें भी बस दूर से,
सब कहकहे बेनूर-से,
क्या इसमें भी कुछ गलत है,
जो रह गया मैं खामोश था?
जन्नत ही मैं ढूँढ रहा था,
राहें बड़ी आड़ी तिरछी थीं,
मैंने जो अपनी एक बनायी,
पता जन्नत का बदल गया?
पहचान नहीं चल मान लिया,
चल, गुमनामी भी मंजूर मुझे,
पर कोई आदमी से कमतर लगे,
कैसे चल पड़ा यह सिलसिला?