मैने तो देखा है

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मैंने अक्सर देखा है,

सोचने और होने के बीच एक

बहुत ही पतली-सी रेखा है।

मान लेता है मन बहुधा,

कुछ और नहीं दरअसल,

यह बस एक विचार है,

पड़ता है फर्क बस इस बात से,

कि हमारा पाँव पड़ा किस पार है।

कहीं यहीं से शुरू होती है,

अपने पाँव को सही

और लकीर को गलत ठहराने की प्रवृत्ति,

छल,छद्म और कूट की नीति,

यथार्थ से विग्रह, झूठ की राजनीति।

औरों से पहले खुद हम ही,

कोशिशों को उसका सही दर्जा नहीं देते हैं,

असफलता को चुपचाप हार मान लेते हैं।

फिर हम ही शुरू करते हैं वह सिलसिला,

कि मरने से डरते हैं,

रेंगने , घिसटने से नहीं ,

और भूल जाते हैं,

कि जिन्दगी जीने से होती है,

बीतने या कटने से नहीं।

जिन्दगी अंततः औरों के आइने में

दिखती हमारी तस्वीर नहीं,

हमारा अपना ही लेखा है।

यकीन हो तो कोई भी देख सकता है।

मैने तो देखा है।

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