
विराग अंकुरित हो रहा था,
स्नेह तंतु सब सूख रहे थे,
ज्ञान,तर्क लगने लगे थे ओछे,
कि क्षण एक प्रस्फुटित हो गया,
अनगिनत संवादों में,
एक ध्वनि के, एक किरण के,
संकेत भरे अनुरागों में।
समाधान नहीं, कुछ प्रश्न ही उभरे,
सिमटते क्या कुछ और ही बिखरे,
पर व्यथा नहीं थी ताप नहीं था,
सरल बोध था, सहज जिज्ञासा,
शीतलता थी, संताप न था।
वैराग्य नहीं था अभाव जनित,
श्रोत कहीं अलगाव में था,
आकांक्षाओं, आशाओं, संचय के
अर्थहीन बिखराव में था।
समर्पण-हीन अभियोजन प्राय:,
विमुख ही करता मूल विषय से,
निर्णय कठिन, फिर भी बल मिलता,
चेतना हो यदि जुड़ा हृदय से।
प्रश्न प्रमुख, क्या आकांक्षा मेरे,
सत् हैं, हैं अंतर्मन से अपने?
तोड़ गया विराग वलयों को,
मृदुलता सद्य: लग गयी पनपने।
क्या अनुराग-विराग मौलिक हैं,
या हैं ये विषय विकार के जाये?
सत हो चित्त में, पूर्वाग्रह ना हो,
चलें राह जो विधना दिखलाये।