
स्मृति का उद्यान अनूठा,
कितना कुछ पीछे है छूटा,
कितना, क्या-क्या शेष बचा है,
बोध, भ्रांति का समर रचा है।
कौतूहल, विस्मय, संशय अगणित,
विश्वास, हर्ष और दंश समाहित,
जो कुछ इनमें दिखता, मिलता,
निर्मल या पूर्वाग्रह प्रायोजित?
यहाँ काल क्रम स्थिर नहीं होता,
एक बोध कल फिर नहीं होता,
सघन अतीत मायावी लगता,
स्वप्न सरीखा जगता सोता।
उन्माद बड़े ही प्यारे दिखते,
भावुकता टिम-टिम तारे दिखते,
द्वेष, क्लेश जैसे बस व्यतिक्रम,
विजय बहुत-से हारे दिखते।
जुगनू अनेकों दीप बहुत-से,
अंतरमन को जगमग करते,
स्नेह, सुभाव मन-वचन-कर्म के,
बिना छद्म के सतत विचरते।
ये वितान, रंग और चित्र सारे,
सब सच्चे कुछ भी ना झूठा,
तुममें रचा-बसा अब तेरा सच,
स्मृति का उद्यान अनूठा।
बहुत ही सुंदर !💐
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धन्यवाद।
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