
जी, मैं भटक नहीं रहा था,
कुछ तलाश रहा था।
शहर से दूर भले ही था,
हकीकत के पास रहा था।
रात की स्याही को साजिश कह-कह कर,
दिखे बहुत-से तीर चलाने वाले।
रोशन करते रहे राहों को
चुपचाप चिराग जलाने वाले।
गर्दिश के गुबार की तिजारत भी
रही है दिल फरेब हर जमाने में,
इल्जाम सूरज पर अंधेरे का,
बंद लोगों को रखा तहखाने में।
कहा किसीने कि भौरों ने
फिजाँ की खुशबू सारी पी ली है,
कहीं से खबर चली थी कि
बची हुई हवाएँ जहरीली हैं।
धुआं कहीं भी उठे,
अगजनी ही क्यों उसका दिल ढूंढता है?
अंगीठी भी किसीकी जली,
तो शहर भर कातिल ढूंढता है?
हैरत अंगेज समाँ कि
बहुतों को बस डराते डरते देखा।
सरोकार उजाले से था,
बात ताउम्र अंधेरे की करते देखा।
बात मुख्तसर सी है जो
हमने उन्हें बतलाया भी,
मिले हर जगह वो ठिकाने,
जहाँ रोशनी भी हो, छाया भी।
फलसफे में रूप भी हो, काया भी,
साथ अपना भी रहे, पराया भी।