
स्मृति में संचित कालखंड के,
अवशेषों को दे बिसार।
मन फिर से तूँ पंख पसार।
ध्वनि सुनी,
प्रतिध्वनि सुनी,
वाद सुने,
प्रतिवाद सुने,
सुने अनेकों नाद अलौकिक,
भौगोलिक संवाद सुने।
सारी ध्वनियाँ कम्पन बन जब,
चेतना में हो गयी समाहित,
एक अनोखी नीरवता छायी,
ना हर्ष सुने अवसाद सुने।
यह कोई उपलब्धि नहीं,
मात्र संस्मरण का एक प्रकार।
चल इसके पार।
मन फिर से तूँ पंख पसार।
ओस में भींगे मरु को देखा,
जल में सूखे तरु को देखा,
क्षार में उगता जीवन देखा,
हास विलास और क्रंदन देखा।
कहीं रुकूँ, यह नहीं लगा,
गहरे तम में जगा जगा,
खेता रहा पतवार।
यह गंतव्य नहीं, है मझधार।
मन फिर से तूँ पंख पसार।
श्रृंगों का स्पर्श किया,
जिये अवसाद और हर्ष जिया,
अपवादों के अतल गर्त में
चेतना का उत्कर्ष जिया।
पर मन के श्रृंगार भवन में,
शेष मात्र सुगंध हवन के,
बिन हठ नहीं रुकते विकार।
चित्त पर मात्र तेरा अधिकार।
मन फिर से तूँ पंख पसार।
शब्द, दृष्य और ख्याति पराक्रम,
मन पर सरल इनका सम्मोहन,
पर ये सदा विगत ही होते,
सहज-गति-रोधक, मति के बंधन।
बहुधा लेते मान इनको
हम वर्तमान का अपना संसार।
मत होने दे यह अनाचार।
मन फिर से तूँ पंख पसार।