
थोड़ा अपनापन से,
थोड़े अधिकार से,
और थोड़े विश्वास से,
कुछ प्रश्न उठे मन में अनायास से,
और मैं ने निहायत ही अपनेपन से पूछा,
अपने सहचर जीवन से पूछा-
कभी तो मुझसे कहो-
‘तुम क्या हो?’
प्रश्न की गम्भीरता से,
या फिर मेरे इस परिहास की अधीरता से,
स्तब्ध जीवन चुप रहा,
बहुत देर तक कुछ न बोला,
तो मै ने कुरेदा-
‘क्यों मौन हो?’
चकित करता प्रतिप्रश्न था-
‘तुम कौन हो?’
इस हमले की चुभन से हतप्रभ,
अपनी पीड़ा उछालता उसपर,
उसकी तिलमिलाहट देखने को
झाँकते उसकी आँखों में,
कहा मैं ने-
‘तुम्हे अपनी पीठों पर ढोता,
बीते के सैलाब में खाता गोता,
आज के सँकरे,ऊबड़ खाबड़ रास्तों से होता,
तिलस्मी कल की ओर दौड़ता,
एक खिलौना हूँ।
और कई बार, मुगालते में सोचता हूँ,
सृष्टि के चलने मे मेरी भागीदारी है,
समय के साथ कदम मिलाकर,
कुछ दूर चलने की मेरी अपनी पारी है,
अनंत के उस छोर तक जाना चाहता हूँ,
कद में भले ही थोड़ा बौना हूँ।‘
चिर संगी जीवन हँसा-
‘इतना कुछ जानते हो,
फिर मुझसे क्या माँगते हो?’
मैं ठिठका,
पल दो पल खड़ा रहा,
जो सुना अच्छा लगा,
पर अपने प्रश्न पर अड़ा रहा-
‘तुम क्या हो?
कुछ इस पर भी कहो।‘
उसने कुछ नहीं कहा,
कुछ देर मैं भी चुप रहा,
फिर इसके ठीक पहले
कि मेरा धैर्य चुकता,
उसने करुणा से कहना शुरू किया-
‘मात्र तुम्हारा होना हूँ,
इसके अलावा कुछ भी नहीं,
बिना प्रतिरूप के छाया,
बिना जीव के प्राण देखा है कहीं।
तेरे होने से मैं हूँ,
मुझ से तुम नहीं।
मैं होता हूँ, जब तुम होते हो,
व्यथित करते हो,
जब कहते हो कि मुझे ढोते हो।
मेरी वेदना तुझ तक जाये,
मुझे अच्छा नहीं लगता।
मैं तो देखना चाहता हूँ तुझमें,
धर्म और स्वाभिमान जगता।
एक और उलाहना दिये बिना
रुक नहीं सकता,
मेरे सर्वस्व हो,
हर रूप में सच्चे लगते हो,
पर किसीसे भी अपनी प्रामाणिकता
का साक्ष्य माँगते
नहीं जरा भी अच्छे लगते हो।
चाहे सात रंगों में हो या विवर्ण हो,
अपने आपमें सम्पूर्ण हो।‘
अप्रतिम!!
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धन्यवाद।
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गर्व की बात है कि आपको पढ़ रही हूँ।
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आभारी हूँ।
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