
जीवन की सरपट उच्छृंखलता से,
समय की मूल्यहीन चंचलता से,
मन थोड़ा क्लांत है।
मन माँगता एकांत है।
लक्ष्य विशाल क्यों नत नहीं करता?
क्यों ज्ञान हमें सम-मत नहीं करता?
क्यों कुछ अनुभव व्यापक नहीं करते?
विवेक सदैव उन्नत नहीं करता?
किस दीर्घा में दौड़ रहे हैं?
लेने किससे होड़ चले हैं?
करतल ध्वनि को लालायित हैं ,
शब्द ब्रह्म क्यों छोड़ चले हैं?
क्यों चुप हूँ, विक्षुब्ध हूँ,?
क्या चेतना शून्य हूँ, स्तब्ध हूँ?
शायद उत्तर ढूंढ रहा है,
चित्त अभी भी उदभ्रांत है।
मन माँगता एकांत है।
जल में भी तृष्णा बाकी क्यों है?
विकट यह आपाधापी क्यों है?
क्या-क्या कह समझाऊँ स्वयम को,
है भी तो ऐसा सर्वव्यापी क्यों है ?
लक्ष्य बड़े हों, ध्येय बड़ा हो ,
सबके पग तल वही धरा हो,
कोई न दुहरा झुका खड़ा हो,
कंधे किसी के न कोई चढा हो।
प्रतिध्वनि हँसती ‘क्या रहस्य तुम खोल रहे हो,’
बात पुरानी बोल रहे हो,
पर अपने इस उपहास में भी
मन थोड़ा शांत है।
मन माँगता एकांत है।
गति है तो फिर दौड़ स्वाभाविक,
राजनीति, गठजोड़ स्वाभाविक,
हर व्यतिक्रम के स्वभाव हैं अपने,
बंद गली और मोड़ स्वाभाविक।
नाम बड़े, पद-नाम बड़े हों,
मुकुट और पनही रत्न जड़े हों,
पर मानवता की परिभाषा में,
सब के सब समकक्ष खड़े हों।
नंगे पाँव, अनंत विस्तार,
छोटी नौका, छोटी पतवार,
गंतव्य अज्ञेय पर गोचर है अब,
इस यात्रा का मूल आधार,
उदात्त लहरें नहीं भयप्रद
अब चित्त मेरा निर्भ्रांत है।
मन माँगता एकांत है।
वाह!!
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धन्यवाद।
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