
अपने मन से बातें कर रहा था,
निपट एकांत, कोई दूसरा ना था,
घुप्प अँधेरे तहखानों को,
अब तक ना खुले रोशनदानों को,
खुद भी भूल चुके गुफा को,
घिस कर मिटती पहचानों को,
छुपा हुआ सब खोल दिया था,
देख यही हूँ, बोल दिया था।
फिर अपने सपने बता रहा था,
घाव बदन के गिना रहा था,
मन में और भी ना जाने क्या था,
कि भंग हो गयी मेरी यह गाथा।
‘घबरा गये बस इतने से ही,
ये बातें हैं पहले पन्ने की,
नहीं क्या तुम अपनी किताब लिखोगे,
जहाँ मंजिल, सफर और ख्वाब लिखोगे?’
जीवन के कितने सोपान अभी बाकी हैं,
अधूरे पड़े हुए निर्माण अभी बाकी हैं,
कहानी बाकी है हिम्मत की,
फलक के पार की उड़ान अभी बाकी हैं।
सहने बहुत-से सर्पों के दंश अभी बाकी है,
मिलने मानसरोवर के हंस अभी बाकी है ,
बाकी हैं कितने ही भँवर और शिखर समय के,
दिखने महाप्रलय में अविचल परमहंस अभी बाकी हैं।
शेष हैं द्वीप बहुत से काल के प्रवाह के,
शेष हैं रंगमंच अनेको जीवन के निर्वाह के,
हल पहेलियों के बहुत सारे, और
शेष हैं बहुत फैसले बिना बहस, गवाह के।
अपने होने का अर्थ जानना बचा हुआ है,
ऐसे ही होना था,
मानना बचा हुआ है,
लाभ-हानि से कर तटस्थ भी बीच समर में,
है कौन जो बैठा अनमना बचा हुआ है?
आभार तुम्हारा, हे अशेष,
जीवन के दुर्बलतम प्रहरों में भी,
कितने अद्भुत हैं जीवनके ये अवशेष!
रुकना,थकना, झुकना, पीछे हटना,
कई बार बढना और बढकर फिर घटना,
हो सकते हैं उपकथाएं,
समग्र जीवन बहुत विशेष।
उम्दा 👌
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धन्यवाद।
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खूबसूरत
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धन्यवाद।
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