
सुख, कहाँ हैं उद्गम श्रोत तुम्हारे?
दुख, विसर्जित हो जाते कहाँ रे?
कहाँ हैं तुम दोनों के बीज,
कौन-सी है वह चीज,
तुम उगते रहते जिसके सहारे?
मन में धीरे-धीरे पनपते,
या किसी कोने में सोये रहते,
और जगते ही आ पाश में गहते?
तुम भाव हो, स्थिति हो,
जड़ हो, अवचेतन या चेतन हो,
दालान पर ठहरे अतिथि हो,
या अपना कोई बैठे घर-आंगन हो?
क्या विचरते व्योम में हो,
आते जब कोई बुलाता है,
या और कोई नियामक है जो,
किसी नियम पर तुम्हे चलाता है?
क्या ध्येय होगा किसी का,
इस अर्थहीन संचालन में,
आशीष के संग कोई विधाता,
पीड़ा क्यों देगा पालन में?
मन के अंदर यदि पनपते,
सुख सबका ही वांछित होगा,
किन्तु औरों से अधिक चाहना,
क्या करता दुख को निर्मित होगा?
मन अपने दुख को क्यों प्रश्रय देगा,
तो क्या हम औरों के लिये इन्हें उगाते,
अपने मन में पाल पोष,
हैं भाव तंतु से उन तक पहुँचाते?
है एक और तथ्य आधारभूत,
सुख और खुशी में फर्क बहुत,
हम जान जान भी नही मानते,
जनते प्रपंच पीड़ा के अद्भुत।
सुख, तुलना, जब आधार है तेरा,
बसते मुझमें, रह औरों के अधीन,
तुम सीमित, बस दुख के हो पूरक,
खुशी निर्पेक्ष सदा, और नित्य नवीन।
फिर भी मन में बसती ललक पुकारे,
सुख, कहाँ हैं उद्गम श्रोत तुम्हारे?
👌👌👌
LikeLike
धन्यवाद। आभार।
LikeLike