
बहती धारा सूक्ष्म-सा मैं बह रहा हूँ,
सोचता क्या हूँ अगर मैं तुझे बताऊँ ,
जीवन एक प्रवाह है मैं मानता हूँ,
पर तटों को आकार देना जानता हूँ।
चेतना तुमने दी,
आभार तुम्हारा,
मुझको रचना पूर्णतः अधिकार तुम्हारा,
अब अपने अस्तित्व का स्पर्श करना चाहता हूँ।
अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।
स्नेह दो, तुम प्यार दो,
मुझ पर जीवन का भार दो,
प्रार्थना करता रहूँगा कि
गहराई और विस्तार दो।
राह तुम दिखलाना मगर,
अभिमान इसको मत समझ,
गंतव्य भी और राह भी मैं अपनी पकड़ना चाहता हूँ।
अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।
तेरा सब कुछ, तुझ को अर्पण,
तेरा ऋणी मैं हर पल हर क्षण,
पर कुछेक भाव जो मुझमें पनपे,
कह सकूँ उसे मैं अपना सर्जन।
नम्रता से पर नहीं दीनता से,
समर्पण भाव से पर नहीं हीनता से,
बीज, अंकुर और कुछ लताएँ अपने नाम करना चाहता हूँ।
अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।
सारथी तुम हो, रहोगे,
जिस दिशा रथ मोड़ दोगे,
उसी जगह रक्त सिंचित कर,
भाव बीज बोने तो दोगे?
बस इतने से ही मेरी कथा,
पा जायेगी वांछित अनित्यता,
वर दो,
तेरी सृष्टि के सौन्दर्य का विस्तार करना चाहता हूँ।
अपने होने के भाव में कुछ अर्थ भरना चाहता हूँ।
बहुत सुन्दर
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धन्यवाद। आभारी हूँ।
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