
मन वृथा ही शोक मत कर,
तू जिजीविषा का मान कर,
अंश तो उसका ही है तू,
उस ब्रह्म का संधान कर।
पूछ मत कातर हृदय हो,
आपदा मेरे ही सर क्यों,
हीन बन मत याचना कर,
भीख में सुख दे मुझे दो।
चेष्टा अधिकारों के लिये कर
शक्तिभर और प्राण भर।
मन वृथा ही शोक मत कर,
जिजीविषा का मान कर।
उद्देश्य यदि पर हित हो,
तो त्याग तुम्हारा बल-संबल है,
पर धारणा निषेध मात्र का,
नहीं त्याग दर्शन दुर्बल है।
मुँह मोड़ना, रण छोड़ना,
है कभी नहीं सम्मान-कर।
मन वृथा ही शोक मत कर,
जिजीविषा का मान कर।
जब सब कुछ प्रतीत हो अर्थ हीन,
मन संघर्ष से मुंह मोड़े,
पहचान इसे यह व्यतिक्रम है,
सत्कर्म तो जीवन से जोड़े,
अर्थ मात्र है उसी कृत्य का
जो साँसों में दे प्राण भर ।
मन वृथा ही शोक मत कर,
जिजीविषा का मान कर।
क्षण भर को यदि मान भी लें,
यह अंतिम सीमा है साहस की,
जो स्वयं प्रश्न चिन्ह हो जीवन पर,
वह दृष्टि नहीं है, विकृति,
मत छोड़ जा पीड़ा का गरल
विराम मत दे प्राण पर?
मन वृथा ही शोक मत कर,
जिजीविषा का मान कर।
अति सुन्दर
LikeLike
धन्यवाद ।
LikeLike