
कई बार जुगनू, कई बार तितली,
और कई बार परिंदा हो जाता हूँ ।
थका हारा होकर भी हर दिन,
फिर से जिंदा हो जाता हूँ ।
प्राणों का हल्कापन,
साँसो का उत्प्लावन,
बहुत ऊपर से पुकारता जीवन का उन्मत्त राग,
मुझे पुकारते हैं ,
पास बुलाते हैं,
कहते रहते हैं मुझे – अरे जाग, जाग,
उठने को, और ऊपर उठने को,
झंकृत होता है हर तार, जिंदा हो जाता हूँ।
कई बार जुगनू, कई बार तितली,
और कई बार परिंदा हो जाता हूँ ।
थका हारा होकर भी हर दिन,
फिर से जिंदा हो जाता हूँ ।
सौन्दर्य से, सत्य से,
अद्भुत से, अनित्य से,
जहाँ भी मन को विस्तार मिले,
रचना का आधार मिले,
स्वभावत: जुड़ना चाहता हूँ,
पर,
घोर एकात्मता के क्षणों में,
पूछे कोई जो मुझसे,
पंख फैला कर अपने,
पहले उड़ना चाहता हूँ।
उड़ना ऊपर पार गगन के,
डैनों पर अपना भार लिये,
निहारता जग को निर्लिप्त हो,
तैरता स्वच्छंद भारहीनता से।
यह कोई सनक नहीं,
कोरी कल्पना की पिनक नहीं,
केवल स्वच्छंदता का मोह नहीं,
कोई मौलिक विद्रोह नहीं।
इसे पागलपन कह सकते हो,
मान सको विश्वास मान लो,
जब हर कोई उड़ पायेगा,
दूर गगन से जग देखेगा,
उन्मुक्तता का स्वाद चखेगा,
तब उसमें विश्वास जगेगा,
कि जग तो सुन्दर चारों ओर है,
पीड़ा का मूल कुछ और है,
छिन ना जाये इस शंका में,
भरते सोना अपनी लंका में,
डर से कि ना कोई पैर दबा दे,
एक दूसरे का गला दबाते।
बहुत हवा है आसमान में
भरने को हम सब की साँसें,
फिर करता ही क्यों कुछ ऐसा हूँ ,
कि खुद से शर्मिंदा हो जाता हूँ ?
कई बार जुगनू, कई बार तितली,
और कई बार परिंदा हो जाता हूँ ।
थका हारा होकर भी हर दिन,
फिर से जिंदा हो जाता हूँ ।
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धन्यवाद ।
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