
काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।
सुनी तेरी आहटें,
और बदलती करवटें,
कर्णभेदी अट्टहास,
मौन और परिहास।
सुन लिये गर्जन हैं तेरे ,
निर्घोष वज्र प्रहार के,
चक्र जीवन के न चलते,
बिना क्षति, संहार के,
मानता हूँ पर, क्षमा दो,
मैं अपनी नयी एक राह चुनना चाहता हूँ ।
काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।
तुझ में विलीन हो जन्मा तुझसे ही
कहूँ सखा-तुल्य, यह दम्भ नहीं,
मरण-जन्म का आवर्त सनातन,
पर मृत्यु मिटा सका कभी जीवन के स्तम्भ नहीं।
अनंत है तेरा भाल पटल,
और असंख्य जीवन वृत्त मेरे,
कल्पना किसी बैर की तुझसे,
नहीं स्वप्न में ना चित्त मेरे,
हठ फिर भी ना त्याग सकता कि,
उन्मुक्त हो मैं अपना स्वप्न बुनना चाहता हूँ।
काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।
काँपती मेरी भुजाएँ,
पर नहीं होना व्यथित तनिक तुम,
तेरी सीमाओं से जाकर ऊपर,
संधान नहीं, तो क्यों हैं हम।
तेरा तांडव माप दण्ड हो मेरा,
नयन भीति से झुके नहीं।
हों सारे प्रलय स्वीकार्य हमें
और प्रगति रथ रूके नहीं,
नतमस्तक सम्मुख तेरे,
पर स्वाभिमान से अस्तित्व के अर्थ गुनना चाहता हूँ।
काल तेरे का नुपुर का संगीत सुनना चाहता हूँ।
सब रचनाएं सहेज रहीं हूं। एक एक रचना बहुत सूक्ष्मता से , धैर्य से पढ़े जाने योग्य है।
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आप का ऐसा लिखना बल देता है।मेरी रचनाओं पर ध्यान देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद। आभारी हूँ। अपनी आलोचना और सुझाव भेजते रहें।
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