दूर खड़े सखा मेरे

scenic view of forest during night time
Photo by Hristo Fidanov on Pexels.com

बसती मेरे जीवन की कथा में,

भाँति-भांति की उप-कथाएँ,

मित्रों की, परिजनों की,

सम्बन्धों की, समीकरणों की,

जीवंत उल्लास और नि:शक्त विवशताएँ,

निश्छल आसक्ति, मोह की काई,

परिदग्ध स्नेह और शीतल लांछनाएँ।

 

बहुत प्रिय हैं सब के सब,

निधि हैं मेरे,

मेरे जीवन के छंद,

मेरे इतिहास के अलंकार,

मेरी शक्ति, मेरा संयम,

दुर्बलता के क्षणों के

मेरे अवलंब-आधार।

 

कहीं किसीकी सफलता ने

हीनता मुझमें भर दिया,

कहीं दूर जाता देख मुझे

मित्रों ने स्नेह पाश में जकड़ लिया।

 

कभी किसी के सहज एकांत को

समझ अकेलापन झकझोर दिया,

कभी किसी ने देख भीड़ में,

निपट अकेला देख छोड़ दिया।

 

कई बार कंधे ढूँढे तो

पत्थर-से स्तम्भ आ खड़े हुए,

और मूल्यांकन के चौपड़ में

हम क्षत-विक्षत थे पड़े हुए।

 

इतना रंग-विरंगा जीवन,

मधुर, कटु और सुरम्य मनोहर,

इनके बदले कुछ भी ना लूँ,

कृतज्ञ हूँ ,

जैसे जिया, मैं जी कर।

 

एक अलग-सा भाव कहीं है,

कुछ कहने को कहता है,

वहाँ भावनाओं से, और संवेदनाओं से,

ऊपर एक गंध और स्वाद बसता है।

 

संग बहुत पहले छूटा था,

साथ बहुत छोटा –सा है,

उम्मीदों अपेक्षा का

ना कोई तंतु हमें बांधता है।

 

जब मिलते हैं मुझे न जाने,

ऐसा कुछ क्यों लगता है,

यही निजता मैं  ढूंढ रहा था,

नहीं जानता,

इसको जग क्या कहता है?

 

उस्थिति जहाँ ना  भार लगे,

बस संग होने में ही प्यार लगे,

स्तर का अंतर  अर्थहीन,

सहज सारा संसार लगे।

 

शब्द चयन की बात नहीं  हो,

घात नहीं  प्रतिघात नहीं हो,

जीत-हार,

नही कोई करता हो अंकित,

नहीं आवरण सम्मुख जब हों,

पीछे पीठ  नहीं मन हो शंकित।

 

परिचय मौलिक सम्बन्धों से,

सम्बोधन सखा तुल्य, हर्षित हो,

आभास न हो अपेक्षाओं का,

करता वातावरण दूषित हो।

 

उस दुनियाँ,

जहाँ स्वीकार सरल है,

मैं खुद जैसा रह पाता हूँ,

फिर भी मोह पाश में बँध,

वहाँ दौड़ नही आ जाता हूँ ?

 

सही-गलत अब आप बतायें,

बस इतना मैं कह पाऊंगा,

अपनी लोलुपता से कलुषित,

इस निधि को ना करना चाहूँगा।

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