
गहन तिमिर,
सारी दिशाएँ मूक, स्थिर,
मात्र तारा मंडल का प्रकाश,
नहीं कोई स्पंदन,
नहीं कोई गति,
जैसे विश्राम में लेटी नियति,
निविड़ नीरवता पर तरंगें बनाती
बस अपनी ही साँस।
अकस्मात सिहर उठा मन,
मंत्र मुग्ध करता
अंदर ही अंदर कुछ बरस गया,
प्रकृति के इस
चित्रपट पर रच बस गया।
फिर एक अस्फुट स्वर ने
कानों मे कुछ बता दिया।
यायावर को उसके घर का पता दिया।
सम्मोहित यायावर ठगा हुआ-सा खड़ा रहा,
घर का पता मिलने पर भी
घर नहीं गया।
स्वच्छंदता के झीने आकर्षण में
बंधा रहा।
सघन निशा,
सूचि भेद्य अंधकार चारों दिशा,
उल्का, ग्रह, नक्षत्र,
गतिमान यथावत,
जीवन ऊर्जा अदृश्य, पर मूर्तिमान,
अणु-अणु का कम्पन,
स्पर्ष करता अनंत तक फैला वर्तमान।
हठात,
चेतना के एक तरंग का संचार,
कर गया जड़ता पर सूक्ष्म प्रहार,
जीवन की उष्मा सजग हुई,
और सम्मोहन पिघल गया,
स्वच्छंदता का मोह कुछ क्षीण हुआ,
जब मुक्ति बोध ने हाथ गहा।
यायावर ने देखा घर अपना,
पर नहीं गया।
इस बार भी,
यायावर घर नहीं गया।
अब सकल विश्व था घर उसका,
जोड़े संवेदना के तंतु जगत से,
पर, ठहर कहीं पर नहीं गया।
यायावर घर नहीं गया।
💕💕 बेहतरीन
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बहुत बहुत धन्यवाद ।
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मैं मंत्रमुग्ध हूँ इस कविता पर🙏
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धन्यवाद स्वीकार करें । आभारी हूँ ।
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