
अब कहते हो सब कुछ गलत है, गुम कहाँ थे?
नगर का निर्माण हो रहा था, तुम कहाँ थे।
सृजन में यूँ भी तुम्हें विश्वास कम था,
कर्म नहीं था आलोचना थी, तुम जहाँ थे।
क्योंकि ये नक्शे अलग थे तुझ से थोड़े,
दरारों की शक्ल तुम हर महल के दर्मयाँ थे।
किस रौशनी ने तुमको अंधा कर दिया था,
परछाईंयोँ से जंग करते तुम वहाँ थे।
तंग कोनों को रौशन खुद जल कर करते,
पर हुआ यह, तुम बसे हुए घर जला रहे थे।
ईंट और पत्थर तराशने वालों के हाथों ,
किसी जिद में थे कि बारूद पकड़ा रहे थे।
बात थी बिन छालों के कैसे काटें पत्थर,
तुम संगतराशी को ही गलत बतला रहे थे।
सपने सब देखें वही जो तुम दिखलाओ,
इस जिद पर सपने को ही दफना रहे थे।
लहू नहीं तो धड़कन बन कर बस सकते थे,
जानें क्यों तुम दिल मुट्ठी में दबा रहे थे।
रात की स्याही सुबह किसी को क्या बता दे,
नींद में भी क्या इस बात से घबड़ा रहे थे?
वेदना है विध्वंश में भी और सृजन में,
क्यों जीने से पहले गीत मौत के गा रहे थे।
बेहद उम्दा 💕
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बहुत बहुत धन्यवाद ।
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ये सब मैं save कर रही हूँ।
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बहुत बहुत धन्यवाद ।
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उत्कृष्ट रचना ! बधाई !
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धन्यवाद।
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