
अब भी आँखें भर आती हैं,
रुकती नहीं छलक जाती हैं ,
अब भी चेहरा खिल जाता है,
जो सरे-आम कोई मिल जाता है।
अब भी ढोल पर थाप पड़े तो,
झूम कर कोई नाच उठे तो,
मन को बड़ा अच्छा लगता है।
जिन्दा है बच्चा लगता है।
उम्र में इतने बड़े हो गये हैं,
फिर भी रोएँ खड़े हो गये हैं,
साँझ, अंधेरी रात से डरना,
मिले जो भी वह हाथ पकड़ना,
बात पुरानी याद जो आयी,
सुबह-सुबह बजती शहनाई
जैसे मन पर रचा हुआ है,
अब भी बचपन बचा हुआ है।
हर सुबह एक नया सवेरा,
शाम घने तिलस्म का घेरा,
जुगनुओँ की आँख मिचौली,
हरदम चलती हँसी ठिठोली,
जगे हुए सपना लगता है,
मन ही मन अपना लगता है,
माँग रहा है थका हुआ मन,
खेल कूद मिट्टी में सन-सन।
कभी कहा नहीं ‘इतना ही बस’,
कुछ भी कर जाने का साहस,
हार मिली तो मान लिया,
रुक,फिर लड़ने का ठान लिया,
नहीं ग्लानि जो न मिली सफलता,
अगर किया जो था कर सकता,
बिन पेंचों की सीधी बातें,
चकमक तारे नीन्द की रातें।
गुरू-ज्ञानी जन यही बताते,
पर कैसे, समझा नहीं पाते,
जोड़ें बिन गाँठों के जैसे,
स्वार्थ बिना उद्देश्य हो कैसे?
संभव है यदि दुख के दर्शन,
निर्माण करे ना दुख के कारण,
बीज सभी से अपनेपन का,
मरा नहीं, है पनप रहा,
स्नेह की उसे तरलता दे दो,
बचपन की सरलता दे दो।
कठिन सही पर बात कहो एक,
सरल-गलत कर जियोगे कब तक,
करो कभी जो सच्चा लगता है,
मन को बड़ा अच्छा लगता है।
जिन्दा है बच्चा लगता है।