क्षत पत्र

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Photo by Dominika Roseclay on Pexels.com

मात्र एक क्षत पत्र हूँ ,

हर काल हूँ , सर्वत्र हूँ।

कर्तव्य च्युत नहीं,

आंधियाँ सही- लड़ा, भागा नहीं,

जगा रहा सोया नहीं,

अटका-लटका,

उड़ा,

दूर-दूर तक गया,

कोई शिकायत नहीं,

कि मुझे किसी ने छू कर मुझको,

तनिक भी अपनापन नहीं दिया।

जमीन पर पड़ा रहता हूँ,

मिट्टी में समाता हूँ,

अपने आपको खो कर मैं

एक पेड़ बन जाता हूँ।

फिर उसी में उगता हूँ,

और अपनी टहनी पर लटक जाता हूँ।

कोई अपेक्षा नहीं,

किसीकी उपेक्षा नहीं,

कोई अभिमान नहीं,

सृष्टि का मौलिक उपादान हूँ,

एक शाश्वत प्राण हूँ।

अजेय हूँ , अमिट हूँ ,

सरल जीवन चक्र हूँ।

 

मात्र एक क्षत पत्र हूँ ,

हर काल हूँ , सर्वत्र हूँ।

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3 thoughts on “क्षत पत्र”

  1. एक टूटा हुआ पत्ता भूमि में मिलकर फिर से पौधे के रूप में उगता है। और आपने बहुत सुंदर चित्रण किया है , कई भावों का एक ही कविता में।

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