बंधु, क्यौं छलते हो?

selective focus photography of child hand
Photo by Juan Pablo Serrano Arenas on Pexels.com

 

मेरे अंतर्मन की व्याकुलता को,

अपने स्नेह-स्पर्ष से

स्वीकार में बदलते हो,

दिखते नहीं,

कोई कहता नहीं,

पर मुझे लगता है हर पल,

तुम साथ मेरे चलते हो।

बंधु, क्यौं छलते हो?

 

जीवन मरु के नग्न ताप में

दग्ध हो जाती  संवेदनाएँ,

मन के तंतु चीख-चीख कर,

माँगती शीतल जल धाराएँ,

मुझ से छुपकर, मुझ से भी पहले,

तुम ही तो पिघलते हो।

बंधु, क्यौं छलते हो?

 

निज लघुता के हाहाकार में,

दसों दिश छाते अंधकार में,

अर्थहीन लगते जीवन के,

विकृत भयावने विस्तार में,

सगा, अबोध या निरीह समझ

पथ प्रकाश को जलते हो।

बंधु, क्यौं छलते हो?

 

भर सामर्थ्य के उन्मादों में,

इतराया जो धरातल से ऊपर,

या प्रमाद कीर्ति का किंचित भी

छाया, तो तुमने अंगुली ली धर,

कैसे-कैसे सूक्ष्म संकेत,

देते हो मुझे सम्हलने को।

बंधु, क्यौं छलते हो?

Published by

2 thoughts on “बंधु, क्यौं छलते हो?”

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s