
नमी है, उष्णता है,
ऊर्जा है, गति है।
विश्वास है, निरंतरता है,
प्राण की अनुभूति है।
आरोह में अवरोह में
महसूस कर रहा हूँ,
साँसों को अपनी,
जैसे स्वयम को जानने की शुरुआत हो,
इस अकेलेपन में शायद खुद से फिर मुलाकात हो।
दहकती दोपहर में,
उनींदी आँख सहर में,
घबड़ाया जो दिल तो,
अपने अंदर टटोला,
जो बच्चा रो रहा था,
जो पागल हँस रहा था,
दोनो से बोला,
क्या मैं ‘तुम लोग’ हूँ?
किस से पूछूँ, कैसे पहचानूँ?
वे हैरत से बोले ‘पता नहीं’,
खुद से पूछो,
क्यौं हमें उलझाते हो,
हम यूँ हीं भले हैं,
कुसूर बस इतना है कि तेरे संग हो चले हैं।
कदम पीछे हटा लिया,
वह बच्चा भी अच्छा था,
और वह पागल भी सच्चा था।
‘वे नहीं मैं,’
सोच कर चल पड़ा था,
क्या कह कर विदा लूँ –
दुविधा में खड़ा था,
कि अनायास,
ली एक उच्छवास,
अरे, यह क्या?
क्या प्राण मेरे कोई संकेत मुझको दे रहे हैं?
‘हम तीनो साँस एक साथ ले रहे हैं।‘
द्रवित हृदय से गले लगाया,
‘तुम मैं हो।‘ उन्हे बताया।
उत्तर में वह दोनो बोले,
‘हिचक मत, अपनी राह हो ले।
डर मत,
हम कहीं नहीं जाते,
हम कभी नहीं मरते।
हाँ,
कभी-कभी तुम ही इतनी दूर चले जाते हो,
कि हमें देख नहीं पाते हो।
और ये जो साँसों की डोर बंधी है,
इसे मत तोड़ना।
अच्छा चलो, जाओ,
प्रत्यक्ष तुम्हारी जो जिंदगी है,
उससे मुँह कभी मत मोड़ना।‘
आँखों में नमी लिये,
सीने में आभार लिये,
मन में अनोखा-सा यह
साँसों का उपहार लिये,
चल पड़ा मैं निपट अकेला,
जैसे सचमुच,
यह स्वयम को जानने की शुरुआत हो,
इस अकेलेपन में शायद खुद से फिर मुलाकात हो।
🙏
LikeLike