
और जीवन चलता रहा।
हाथ टटोलते घुप अंधेरे,
विवेक हीन अज्ञान ने मेरे,
जो छुआ उसे अपना माना,
कृतज्ञ हृदय, बाहों में घेरे।
पहली संवेदना- स्वीकार की,
जगी, प्रवाह का उद्गम बना।
और जीवन चलता रहा।
पहला ज्ञान स्वीकार का
जिज्ञासा कितने जगा गयी,
साहस यहीं कहीं पनपा,
फिर कथा पराक्रम शुरू हुई।
कौतूहल, विश्वास ने मिल कर
अब साहस का हाथ धरा।
और जीवन चलता रहा।
बढा कदम अनुसंधान का,
स्वभाव नही सीमित हो रहना,
न बंधन करे कातर कोई,
शीष उठा पूरा कर सपना।
चला प्रगति रथ उर्ध्व दिशा,
मानव मन को विस्तार मिला।
और जीवन चलता रहा।
अंध कूप से पार क्षितिज,
कहानी है अदम्य चेतना की,
अडिग संकल्प, उत्सर्ग प्राण का,
सृष्टि पर्व की, वेदना की।
नत, विनीत; पर मनुज ही क्या
जो विपदा से डर रुक गया।
और जीवन चलता रहा।
khub
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Very nice dear
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