
बिन घाट देखे, बिन बाट देखे,
बादल बरसता रहा रात भर।
ना हाल पूछा, ना चाह पूछी,
बस अपनी ही कहता रहा रात भर।
ना वक्त देखा, ना नीन्द देखी,
बचपन के दोस्त-सा, अहमक,
पास बैठा रोता-लरजता रहा, फिर
दबे पाँव चल दिया मुँह फेर कर।
सवेरे धुला-धुला-सा था सारा समाँ,
जैसे कि ओस में पिघलती सुबह की धूप,
तन्हाई लग रही थी खूबसूरत इतनी,
जी चाहता था आज रो लूँ मैं जी भर।
खालीपन कैसे भरता है किसी को,
ऐसी एक नयी समझ आयी,
वह हल्का करता रहा मुझे सवेरे,
खुद को मुझ में भर-भर कर।
जो चाहे और जब भी चाहे,
कह सके बिन लाग लपेटे के,
ऐसा एक बादल का टुकड़ा,
रखता हूँ सदा छुपा कर भीतर।