पोर-पोर में बसते
जीवन की खुशबू-सी अपनी,
अनजाने राहें, टेढी-मेढी,
मुड़-मुड़ के देखती आखों से धुंधली,
मौजूद मुझमें हर पल बंधु,
तुम कौन हो,
क्यौं मौन हो?
कौतूहल जगा-जगा कर,
दबे पाँव आ-आ कर,
मुझे ले चलते,
असंभव-सी ऊँचाईयों पर,
न पाँव तले जमीन,
न सहारे को तिनका,
रोमांच का अतिरेक,
ठहरा-सा जाता पल,
कोई फर्क नहीं यदि
आगे कुछ भी हो, न हो।
बंधु,
तुम कौन हो, क्यौं मौन हो?
अररबेल-सी लिपट-लिपट कर,
इस काया को बाहों में भर,
डोर कभी साँसों-सी बाँधे,
और दोस्त-सा पास सिमटकर,
मेरे संग-संग
अपना करती सारी दुनिया को,
कहाँ से लाते इतना प्यार, कहो?
बंधु,
तुम कौन हो, क्यौं मौन हो?
किसी पिता-सा ज्ञीर्ष हाथ धर,
एक भरोसा अंतिम पल तक,
‘उतर पड़ो जीवन समर में,
सिद्धि तय जो संकल्प हो सार्थक।‘
विश्वास जिंदगी को देते,
और भरते एक नया प्राण
तुम मुझमें किस विधि अहो।
बंधु,
तुम कौन हो, क्यौं मौन हो?
संवेदनाएँ प्राणों में रची सूक्ष्मतम,
कर जड़ अनुभूतियों को चेतन,
रोष नहीं था किंचित मन मे, जब
चढा कसौटियों पर मैं हर क्षण।
ऋणी हूँ परीक्षा के लिये,
इस सृजन का श्रेय स्वीकार करो।
बंधु,
तुम कौन हो, क्यौं मौन हो?